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तिरा ख़याल सर-ए-शाम ग़म सँवरता हुआ / मज़हर इमाम

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तिरा ख़याल सर-ए-शाम ग़म सँवरता हुआ
बहुत क़रीब से गुज़रा सलाम करता हुआ

झिजक रहा था वो मुझ से नज़र मिलाते हुए
कि मै भी थ इसी ख़ाके में रंग भरता हुआ
 
मै ग़र्क होने ही वाला था जब तो इक तिनका
भँवर भर सक पशेमान ख़ुद से डरता हुआ

मिला वो पाँच सितारो की रक़्स-गाहों में
ज़माने भर से पशेमान ख़ुद से डरता हुआ

मसाफ़ते हैं बहुत और सख़्त राहों से
गुज़र गया है वो मुझ को तलाश करता हुआ

रक़म हुआ नही अब तक निसाब-ए-हम-सफ़री
वो क़ाफ़िला भी मिला जब तो कूच करता हुआ

अजब तिलिस्म-ए-सफ़र है कि शाम-ए-मक़्तल तक
पहुँच गया हूँ मैं हर मोड़ पर ठहरता हुआ

किनारा था मिरे दरिया से कट गया वो शख़्स
कि मैं था वक़्त की सरहद को पार करता हुआ