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तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ / 'क़ैसर'-उल जाफ़री
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तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ
फिर इसके बाद न आना हुआ न जाना हुआ
कुछ इतना टूट के चाहा था मेरे दिल ने उसे
वो शख्श मेरी मुरव्वत में बेवफ़ा न हुआ
हवा खफा थी मगर इतनी संग-दिल भी न थी
हमीं को शम्अ जलाने का हौसला न हुआ
मिरे ख़ुलूस की सैकल-गरी भी हार गयी
वो जाने कौन सा पत्थर सा आईना हुआ
मैं ज़हर पीता रहा ज़िन्दगी के हाथों से
ये और बात है मेरा बदन हरा न हुआ
शुऊर चाहिए तरतीब-ए-ख़ार-ओ-ख़स के लिए
क़फ़स को तोड़ के रखा तो आशियाना हुआ
हमारे गाँव की मिटटी ही रेत जैसी थी
ये एक रात का सैलाब तो बहाना हुआ
किसी के साथ गयीं दिल की धड़कन 'क़ैसर'
फिर इस के बाद मोहब्बत का हादसा न हुआ