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तीन कविताएँ / कुबेरनाथ राय

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तुम्हारी दक्षिण पाणि

वधू, वह संशय की रात थी :
हम और तुम
परस्पर आहत बैठे रहे जैसे
प्रश्न और प्रतिप्रश्न।

पश्चिम दिगन्त-रेखा पर अस्त होते रहे दिव्य महल
झलमल कंगूरे और कलश। सर्वभक्षी अन्धकार
करता गया ग्रास। हम सुनते रहे लगातार हवा में
रक्तपायी चमगादड़ों के झपट्टे बार-बार।
अचानक तुमने कहा, अँधेरा अधिक हो गया' मैं चुप रहा।..... तब तुमने फिर कहा, 'देखें क्या है समय?' और तुम्हारी दक्षिण पाणि उठी, रोशनी की एक मूँठ जैसी
आश्चर्य तुम्हारे हाथ से झरते प्रकाश-वलय की- वज्रहीरक-द्युति में मैंने पुनः देखा

एक कुत्सित गोमेदवर्णी सरीसृप विषाक्त
तुम्हारे ही दक्षिण पग को स्पर्श करता हुआ
सरकता आ रहा, निकट अतिनिकट, मेरी ओर!
कि तुम्हारी दक्षिण पाणि से झरती एक मुट्ठी रोशनी की चोट खा
वह नतशीश, लज्जावनत, बिफर रहा धरती पर।
वधू, वह थी संशय की रात, वह था संशय का सर्प
और सर्प वह मारा गया!
वधू, तुम्हारी भास्वर दक्षिण पाणि मुझे दे गयी
अभय और त्रासमुक्ति
स्तब्ध हो गयीं रक्तपायी चमगादड़ों की चीखें
और घनीभूत अन्धकार साँसों की कविता जैसा सुखद हो गया।

सुख, अतिशय सुख

मैं था उस दिन असहज, अति असहज
मैंने तुम्हारे आयत चक्षुओं में देखा एक प्रमत्‍त नागिन
जो अपनी ही छाया को डँस-डँस लहराती है।
मैंने कहा, मैं हूँ विकल, अतिविकल
तुम्हारे संशय-सर्प तुम्हारा ही अमृत पीकर
तुम्हीं को बार-बार डँसते हैं, परन्तु देखो, आश्चर्य
दंश तुम पाती हो, लहर मुझे आती है
मैं विकल, अतिविकल! मैं चला जाऊँगा
ये सर्प तुम्हारे अंग-अंग का अमृत चूस डालेंगे।
और तभी तुम्हारी आँखें हो उठी नम
बाष्पाच्छादित लोचनों में उतर पड़ी प्रीति
एक अनुकम्पा, एक अद्भूत दाक्षिण्य,

तब मैंने देखा, तुम्हारे चक्षुओं से उतर
अंग-अंग विचरते वे कालसर्प बन गए छन्द,
स्रग्धरा, मालिनी, वसन्ततिलका चटुल
मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी और चपल अनुष्टुप्।
सारे ललित छन्दों का मेला उतर आया- तुम्हारे श्रीअंगों पर
जब तुम्हारे दो लोचन हो उठे प्रीति से आर्द्र
ओ प्रिया स्वाती।
तुम्हारी क्षणदृष्टि की फुही से सारे दंश बन गए।
सुख, अतिशय सुख!

कैसे हो?

प्रिय सोनल, तुम्हारी कथिका ही वैसी थी!
बहुत-बहुत दिन बाद
उस दिन तुम मिली थी अचानक पथ पर
मुझे लगा कि अगल-बगल झाड़ियों से चीते और बाघ
धूर्त नेत्र एकटक देख है रहे, हमें और तुम्हें।
काले रीछ मुँह फाड़ने लगे बार-बार।
परन्तु सोनल, क्या यह नहीं आश्‍चर्य?
कि तुमने पूछा, 'कैसे हो?' कि तभी वे काले रीछ
लज्जित हो, हो गए नतशीश। बाघ और चीते बड़े प्यार से
आकर चाटने लगे हमारे घुटने और पाँव।
तुम्हारी आँखों से छूटी थी पहचान की ज्योति
तुम्हारी नन्हीं-सी कथिका 'कैसे हो?' दे गयी अभय
कर गयी मुझे अयाच और मृत्यु ने भी रख दिया उस दिन
अपना खातापत्र एक ओर, चुपचाप सुनने लगी कविता,
वह अशब्द कविता, जो दो शब्दों से छन्द-प्रतिछन्द बनती गयी।

[ नलबाड़ी कॉलेज, नलबाड़ी (असम) ]