तीर्थमाता गंगा / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
देवभूति, खापगा, किराती, ऊर्मिमालिनी,
तुरा, कामदा, धर्मद्रवी तुम नयन-नन्दिनी।
दिव्य गन्ध से सुरभित सुधा बहानेवाली,
अतल सिन्धुतल पर तुम लहर उठानेवाली।
चन्द्रचूड़ ने किया तुम्हें मस्तक पर धारण,
लेगा कौन तुम्हारा नहीं शरण-आलम्बन?
मात्र तुम्हारा दर्शन करने ही से पावन-
हो जाते कृतकृत्य पतित मलग्रसित अपावन।
भागीरथी, तुम्हारे शुभ्र विमल सिकताकरण,
करते विषम ताप हर क्षण-क्षण में अघगंजन।
पाते जिस फल को कर तेरे गुण का चिन्तन,
किसी यज्ञ से भी न उसे पा सकते जनगण।
वन्द्यमान वे देश, ग्राम, जनपद, गिरिप्रान्तर,
बहती तुम जिनकी अन्तर्वेदी से होकर।
बन जाती तुम देवयान पथ अपने भीतर-
अवगाहन करनेवालों के लिए निमिष-भर।
मानस का सांस्कृतिक धरातल तुमसे छन्दित,
हो प्रबुद्ध युग-मन सन्तुलन ग्रहण कर निश्चित।
करती जैसे सुधा देवगण को मदप्रमुदित,
स्रोत प्राण के तुममें करे हृदय को प्लावित।