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तीर की नोक कभी ज़ख़्मे-जिगर देखेंगे / कांतिमोहन 'सोज़'
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तीर की नोक कभी ज़ख़्मे-जिगर देखेंगे।
अल ग़रज़<ref>ग़रज़ यह कि</ref> राह तेरी आठ पहर देखेंगे।।
उसकी बातों पे हँसी आए न कैसे हमदम
उसकी ज़िद है तेरा महबूबे-नज़र देखेंगे।
इश्क़ बूटा था जिसे ख़ून से सींचा हमने
वो जो लौटेंगे तो बरगद-सा शजर<ref>पेड़</ref> देखेंगे।
सर हथेली पे रखा हो तो कोई रंज न ग़म
तेरे दीवाने ये तरकीब भी कर देखेंगे।
आज की रात क़यामत की कड़ी रात सही
हमने ठानी है बहरहाल सहर देखेंगे।
ले तो चलता तुझे उस दर पे दिले-शोरकुना<ref>शोर करता हुआ</ref>
मुझको उम्मीद नहीं है वो इधर देखेंगे।
सोज़ उस बुत का तड़पना नहीं देखा जाता
जिसकी ज़िद थी तेरी आहों का असर देखेंगे॥
शब्दार्थ
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