तीव्र नीली कोलम सिम्फ़नी-1 / दिलीप चित्रे
चाँद का पिछला हिस्सा उगता है स्वप्न में
एक गहरे गड्ढे-सा चमकता शुक्ल पक्ष में । काँव-काँव करते कौवे
चूने सी सफ़ेद चाँदनी रात में
राख के ढूह हर तरफ़ आवाज़ों के नहीं होने में, एक निष्ठुर आकाश
निराकार रात की लहर में घुटता हुआ
मैं घुटता रहा
रात की आकारहीनता में
निराकार मैं
घुटती रात की
लहर में
ठण्डे ग्रह-सा लपेटा हुआ
आकारहीनता के बहाव के भीतर
जो बिखेरता है नीली आग सितारों की
स्वप्न की एक लहर में
पानी की पलकों के भीतर हुआ, मैं
जैसे कोई निराकार सजगता घुटती है सपने के भीतर, घुटन
जागता हुआ ट्राँस में मैं
चलता हूँ चाँदनी में धुली चट्टानों पर
पाँव धरता अजीब पेड़ों से झरे पत्तों पर
जिनका तना जाँघ-सा है
टहनियाँ बाँहों-सी, पत्रहीन
टहनियाँ, छटपटाई पुकार-सी, टेढ़ी-मेढ़ी
और अब चल रहा हूँ मैं सितारों की आग पर,
झरे पत्तों पर, पानी पर, पत्थर पर
मुक्त हो कर लहर से
ऋणमुक्त हवा में
अपनी ही छाया को पार कर गया हूँ अब
नहाता हुआ काले-उजले झाग के
अनाम अनुभवातीत में