तुकान्त के तारे सितारे गूंथ / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
तुकान्त के तारे सितारे गूंथ छन्द की किनारी पर
बेकार अलस वेला को
भरता ही रहता हूं सिलाई के काम से।
अर्थपूर्ण नहीं कुछ,
केवल झिलमिलाते रहते हैं
आँखों के सामने।
तुकबन्दी की सँधों में मेल है,
अँधेरे में पेड़ों पर
जुगनुओं का खेल हैं
उनमें है आलेाक की चमक भी,
किन्तु नही दीप-शिखा,
रात मानों अँधेरे में खेल रही
आलोक के टुकड़े गूंथ-गंूथकर।
जंगली पेड़ पौधों में
लगते हैं छोटे बड़े फूल,
फिर भी नहीं उपवन वह।
याद रहे, काम आये-
सृष्टि में हैं ऐसी चीज सैकड़ों;
न रहे याद, और न आवे काम में
उनकी भी काफी भरमार है।
झरना का जल करता चलता है
नीचे की भूमि उर्वरा;
फूला नही समाता फेन,
क्षण में बिला जाता है।
काम के साथ-साथ खेले गुंथा हुआ है
जो हलका करता भार को,
देखकर खुशी होती सृष्टि के विधाता को।
‘उदयन’
प्रभात: 23 जनवरी, 1941