भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुमको मैं ले जाऊँ / तरुण
Kavita Kosh से
दूर-बड़ी दूर-
तुमको मैं ले जाऊँ, दूर-बड़ी दूर!
तुम पर कर स्वप्न-भरी पलकों की छाँव,
ले जाऊँ हरियाले गीतों के गाँव-
बहती जिस ठौर नदी, रस की भरपूर!
दूर-बड़ी दूर!
नयनों के बाहर मत झाँको हर बार,
लठिया ले घूम रहा तम का सरदार,
कलियों को चुनता जो आँखों से घूर!
दूर-बड़ी दूर!
माटी की ठौर जहाँ होता सिन्दूर!
दूर-बड़ी दूर!
तुमको मैं ले जाऊँ, दूर-बड़ी दूर!
1958