भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुमसे जो डोर बँधी / रश्मि विभा त्रिपाठी
Kavita Kosh से
13
मौसम आना- जाना
मैं ना बदलूँगी
तुमको जीवन माना।
14
तुमसे जो डोर बँधी
इसके ही कारण
अब तक है साँस सधी।
15
तुझ- सा पाके साथी
पल- पल मैं माही
अब गाती, मुस्काती।
16
मुश्किल में थाम लिया
तेरी दो बाहें
अब मेरी हैं दुनिया।
17
खुश्बू से खूब भरी
माही महका दी
तुमने मन की नगरी।
18
कितने भी हों रोड़े
तुमने समझाया -
मुश्किल के दिन थोड़े।
19
गम की ये बरसातें
धीर बँधाती हैं
मुझको तेरी बातें।
20
दुनिया से क्या करना
तेरे दम से है
मेरा जीना- मरना।
21
जबसे ये तार जुड़े
माही मन मेरा
तेरी ही ओर उड़े।
22
मुझमें जो आशा है
उसको तुमने ही
दिन- रात तराशा है।
23
मंदिर ना गुरुद्वारे
मेरा सर झुकता
बस तेरे ही द्वारे!