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तुम्हारा क़ुर्ब वजह-ए-इजि़्तराब-ए-दिल न बन जाए / रम्ज़ आफ़ाक़ी
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तुम्हारा क़ुर्ब वजह-ए-इजि़्तराब-ए-दिल न बन जाए
ये मुश्किल सहल हो कर फिर कहीं मुश्किल न बन जाए
अरे ओ तिश्ना-लब ये प्यास ये अंदाज़ पीने का
समुंदर घटते घटते दूर तक साहिल न बन जाए
ये मश्कूक आदमल लूटे हैं जिस ने कारवाँ बरसों
दुआ माँगूँ कहीं ये रहबर-ए-मंज़िल न बन जाए
चला तो हूँ तिरा बख़्शा हुआ ज़ौक़-ए-तलब ले कर
ख़याल इस का रहे ये सई-ए-ला-हासिल न बन जाए
जिसे मेरी मोहब्बत ने सरापा लुत्फ़ समझा है
किसी रूख़ से वहीं इंसाँ मिरा क़ातिल न बन जाए
नज़र अपनी रहे उस वक़्त तक मम्नून-ए-नज़्ज़ारा
दिल-ए-जल्वा-तलब जब तक मह-ए-कामिल न बन जाए
किसी को ‘रम्ज़’ मज़लूमी के इस एहसास ने मारा
वो अपनों की नज़र में रहम के क़ाबिल न बन जाए