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तुम्हारा मौन / सीमा अग्रवाल

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उफ़! तुम्हारा मौन कितना
बोलता है
वक़्त की हर शाख़ पर
बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास
से पल
अहाते में आज के,
मुस्कान भीगे
गन्ध के कितने झरोखे
खोलता है
उफ़! तुम्हारा मौन कितना
बोलता है
उँगलियों के पोर जब
संदल हुए थे
दिन महक चम्पा के तब
जंगल हुए थे
इंद्रधनुषी पंख बाँधे
मन विहग, अब
रेशमी सुधियाँ समेटे
डोलता है
उफ़! तुम्हारा मौन कितना
बोलता है
बहकते संकेत नीरव
गीत का रंग
थाप देती पलक का
श्रुति मधुर आहंग
भूलकर सब वर्जनाएँ
बावला सा
थिर नदी जल में
तरंगे घोलता है
उफ़! तुम्हारा मौन कितना
बोलता है