भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारा विश्वास / ओम नागर
Kavita Kosh से
सतूल की तरह
कितनी जल्दी धसक जाता है
तुम्हारा विश्वास
बनिये की दुकान पर
मिलता होता तो
कब का धर देता
तुम्हारी छाले पड़ी हथेली पे दो मुट्ठी विश्वास।
बालू के घरौंदों की तरह
पग हटाते ही
कण-कण बिखर जाता है, तुम्हारा विश्वास
खुद अपने हाथों से आकाश में उछाल देती हो तुम
दीवारें, देहरी
और वो आले भी जहां रोजाना रखती हो तुम
एक दिया
भीतर की रोशनी के वास्ते।
कभी-कभी
तुम्हारा विश्वास जा बैठता है
खजूर के शीर्ष पर
और मैं खोदने लग जाता हूं
परछाई
जितनी गहरी खुदती चली जाती है
भ्रम की धरा
उतना ही बढ़ता जाता है विश्वास।