भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारा शहर / निवेदिता
Kavita Kosh से
अक्सर सोचती हूँ कैसा होगा वो शहर
जहां तुम बसते हो
कैसी होगी वो सुबह
जो तुम्हें छूते हुए उठती है
तुम्हारी अलसायी सी
सांसों की कम्पित ध्वनियां
मुझ तक पहुंचती है
गर्म सांसों में ताजा चाय की खुशबू
नई पत्तियों की हरी-हरी गंध
तुम्हारे होठों से लगकर सूर्ख हो गई है
और कोसों दूर मेरा चेहरा लाल हो गया है
जैसे लाल पलाश के फूल
देखती हूँ बिन बुलाए बसंत आ गया है
बसंत की धुली-धुली सी हवा
चारो दिशाओं में फैल गयी है
धूप से भरा बादल का टुकड़ा
तुम्हारे चिलमनों से झांक रहा है
क्या कर रहे होगे तुम अभी
शायद कविता की कोई किताब
तुम्हारे हाथों में होगी
देखो प्रिय
कविताएं झर रही है
सफेद झक-झक फूलों की तरह
शब्द बह रहे हैं
आओ साथ-साथ भीगे
मैं नदी बन बहती रहूं तुम्हारे भीतर