तुम्हारा हिन्द स्वराज / कुमार वीरेन्द्र
तुम कहते थे —
न्याय, समानता, शान्ति के लिए स्त्रियों को
अधिकार मिलने चाहिए, उन्हें कर्तव्यों का ज्ञान ज़रूरी; ज़रूरी है एक स्त्री का, शिक्षित होना कि
उससे एक पूरा परिवार शिक्षित होता है; तुमने धर्मग्रन्थों पर सवाल उठाए — इन्हें देवताओं ने नहीं
मनुष्यों ने लिखा है, इसलिए स्त्रियों के स्वत्व के साथ षड्यंत्र; तुम कहते थे — स्त्रियाँ
धैर्य, साहस और शौर्य का प्रतीक, इसलिए पुरुषों से कमतर कभी न
जाना, अपने दाण्डी मार्च में उनके योगदान को सबसे
अहम माना; यह तुम ही थे, जब हर एक
स्त्री को सम्बोधित किया —
पुरुषों को
ख़ुश करने लिए
यह सजना-सँवरना बन्द कर देना चाहिए
तुम्हारे भीतर एक कवि था, तभी तो यह देख पाए कि पाख़ाने की सफ़ाई करनेवाला, अछूत नहीं हो
सकता, यह काम तो हमारी माँएँ भी करती हैं, और तुमने एक दिन जग से कहा — मैं भी एक भंगी हूँ
तुमने कैसे जान लिया था — अगर समाज में स्त्रियाँ ठान लें, घर के पुरुषों को तब तक
खाना बनाकर नहीं देंगी, जब तक वे दंगों की जड़ें उखाड़ फेंकने का वचन
नहीं देते; तुम्हारे लिए स्त्रियाँ देह नहीं दृष्टि थीं, जिनके बिना
भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती, कोई
स्वप्न सुन्दर नहीं हो सकता; यह
तुम्हारी पीड़ा ही थी
जिसकी
रिक्तताएँ भी कह
पाईं — स्त्री दान का अनुष्ठान नहीं हो सकती
इसलिए, तुमने विरोध किया कन्यादान का, और, कहा कि स्त्रियाँ सम्पत्ति नहीं; तुमने कहा — मैं स्त्री के
रूप में जनमा होता पुरुषों के थोपे गए अन्याय का प्रतिकार करता, मेरा तो यही मानना, जनमते क्या
पिताओं के पिता थे तुम, जानते थे गहरे — वही पिता पिता है जो अर्द्धनारीश्वर, तभी कह
पाए यह समूल; जब स्त्रियों के लिए वस्त्र की कमी देखी, एक धोती धारण
कर ली कि कोई हक़ नहीं बनता, एक व्यक्ति को इतने कपड़े
पहनने का; तुम जो कह सकते थे कहा, कर सकते
थे किया, इसलिए अखरता है ग़ुलामी से
मुक्त हुए कितने वर्ष बीत
गए, तब भी
भ्रूणहत्याएँ बन्द नहीं
हुईं, दहेज के लिए आज भी जला दी जाती हैं
कन्याएँ; क्या बता सकते हो, तुम्हारे मन का हिन्द, ऐसा नहीं था, यह स्वराज कैसा ? बहुत दु:ख होता है
महात्मन् — तुमने जिनके हाथों सौंपा स्वराज वे किस रास्ते चले कि आज स्त्रियों का सिर्फ़ बलात्कर नहीं
होता, जहाँ सृजन सम्भव वहाँ रॉड डाला जाता है, जीभ काट ली जाती है, गर्दन और रीढ़
की हड्डियाँ तोड़ दी जाती हैं, उनके स्तन काट सामने दीवाल पर टाँग दिए
जाते हैं, इतना कुछ के बाद भी, वे ऐसे कायर, आँखें फोड़
देते हैं; लगे अब भी यह ख़तरा, उसके भाई
भतीजे से कहते हैं, अभी हमने
'जो किया' तुम सब
करो
नहीं तो…, तब भी
उनका डर ख़त्म नहीं होता, उसे आग के हवाले
कर देते हैं, तुम तो आज, चश्मे के साथ देश के कोने-कोने, घर-घर में मौजूद, ख़ुद देख सकते हो — तुम्हारा
हिन्द, स्त्रियों का क़ब्रगाह, बनता जा रहा; सोचना महात्मन्, एक बार ज़रूर — तुमसे कहाँ चूक हुई — तुम्हारे
हत्यारे तुम्हें अपना पूर्वज बताने लगे हैं, फूल चढ़ाते शीश नवाते हैं, चरखा चलाते तस्वीर खिंचवाते
हैं, धर्मस्थलों को ढाहने के बावजूद बरी हो जाते हैं, तुम्हारे नाम योजनाओं का
उद्घाटन करते फिरते हैं, एक दिन बहुमत से लोकतंत्र के मालिक
भी हो जाते हैं; इतना ही नहीं, महात्मन्, तुम्हारे हत्यारे
तो अब तुम्हारे भजन भी गाते हैं—'ईश्वर
अल्लाह तेरो नाम सबको
सन्मति दे
भगवान…!'