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तुम्हारी आँखें / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
कैसे जाऊँ भूल भला मैं वे प्यारी रतनारी आँखें
रह-रह हृदय वेध जाती हैं मोह-विहीन तुम्हारी आँखें
यों तो बहुत भली लगती है
गुमसुम आधी रात अँधेरी
मेरे साथ हँसी-रोयी हैं
अम्बर की आँखें बहुतेरी
लेकिन उन लाखों आँखों में मिली न मुझे एक भी ऐसी
सारी-सारी रात गगन में ढूँढ-ढूँढ़ कर हारी आँखें
पलकों के उठते ही रस के-
सातों सिन्धु छलक उठते थे
मेरे मन का आँगन ही क्या-
सातों स्वर्ग झलक उठते थे
कैसे भूलूँ ओ मृगनैनी! उन मद भरे दृगों की पुलकन
खंजन जैसे नयन कहूँ या कहूँ अमृत की झारी आँखें
लोचन-छवि से आलोकित हो
मुझमें जीवन बोल रहा था
मंद-मंद आलोक नयन का
प्राणों में मधु घोल रहा था
तुमने जब से आँखें फेरीं, मन पर छायी रात अँधेरी
अंतहीन बन गयी अमावस वे कारी कजरारी आँखें
-7.4.1975