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तुम्हारी आँखों में / सुशीला पुरी
Kavita Kosh से
तुमने पलाश का
दहकना नहीं देखा
ऐसा तुम कहते हो
हवा में कब घुली सुगंध
कब वसंत ने द्वार खटखटाया
कब भर गई साँसों में धुन
पत्थर-प्राणों में कब हुई सिहरन
तुमने देखा न हो
ये असम्भव है
मैंने देखी है तुम्हारी आँखों में
ख़ुशबू की असीमित दुनिया
धुनों में पगा सरगम
महक पूरी समग्रता से
उतर चुकी है तुम्हारी आत्मा में
मुक्तिबोध के शब्दों में
अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए
रंगों ने ओढी है छुअन
तोडा है गढ़ और मठ ।