तुम्हारी दस्तक का इंतज़ार सा था / शिवांगी गोयल
तुम्हारी दस्तक का इंतज़ार-सा है
दरवाज़ा बेचैन बहुत है
साथ कि कुर्सी भी हैराँ है
अब तक लम्स छुपा है उसमें
मेरे उन पैरों का जो कि तुमसे सट कर चुप बैठे थे
सिगरेट के टुकड़ों पर अब तक
हाथों की नर्मियाँ तुम्हारी दहक रही हैं
महक रही है अब तक मुझमें
उस सिगरेट के धुएँ की ख़ुशबू
उसकी राख बची थी जितनी
मैंने आरिज़ पर मल ली है;
काश! अघोरी बन जाते हम
गांजे-चिलम की राख में डूबे
साथ हमारा बुरा नहीं है
एक रात माँगी थी तुमसे,
मेरी बेकल आँखों ने तब
रुकते, थोड़ी बातें करते
ऐसे कोई खो जाता है?
सिगरेट के वह सारे फिल्टर बौराये से देख रहे हैं
खोज रहे हैं लम्स तुम्हारा
मेरे तलवे भी गुमसुम हैं
पास तुम्हारे बैठे थे जब, आवारापन दूर टंगा था खूंटे पे
तुमने उस आवारेपन का चोला फिर से ओढ़ लिया क्यूँ?
निकल पड़े थे बीच रात में सड़कों पर
मुझे लगा था मुड़कर वापस आओगे,
कुछ सिगरेट के पैकेट थामे हाथों में
मैं सारी रात 'हमारे' दरमियाँ ही बैठी थी
तुम्हारी दस्तक का इंतज़ार-सा था!