भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी याद / राजेश अरोड़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखता हूँ
कितना परेशान कर सकती है
तुम्हारी याद

कुछ किताबें
रख ली हैं सिरहाने

आंगन में रोप ली है एक बेल
बोगनबेलिया की
जिसमें हैं कुछ फूल
और थोड़े काँटे भी

एक्वारियम में ला के रख ली
एक गोल्ड फिश

एक कैनवास, ईजल
कुछ ब्रुश
और ढेर सारे रंग भी ले आया हूँ

दरवाजे पर टांग दिया है
एक विंडचैम्

कानों में हेड फ़ोन लगा सुनू गां
हरि प्रसाद जी की बाँसुरी

फिर भी
रात चाँदनी जब उतरती है
छत की मुंडेर से आंगन में
न जाने कैसे
आ कर खड़ी हो जाती हो
तुम सामने
पसर किताब के पन्नों पर
मुंह चिढ़ा, कहती हो
देखो किताब के हर पृष्ठ पर लिखा है
मेरा ही नाम
और कितनी मिलती हैं
मेरी आँखें
तुम्हारी गोल्ड फिश की आँखों सेI