तुम्हारी शव-यात्रा से लौटकर / विजय किशोर मानव
तुम्हारी शव-यात्रा से लौटा मैं
बहुत उदास हूं
श्मशान वैराग्य से तो पहले भी
कई बार उदास हुआ हूं मैं
और फिर जीवन के माया-मोह में
रच-बस गया हूं जल्दी ही,
लेकिन खासी गहरी है
उदासी इस बार
लगता है देर, बहुत देर तक रहेगी।
तुम अपनी इस पूरी मौत से पहले भी
मरे हो कई-कई बार
चरित्र से, ईमान से, इंसानियत से
और तब मुझे उदासी ने नहीं
छकाया है क्रोध ने
मुट्ठियां तन गई हैं/खून हो गईं आंखें और
फट पड़ी हैं मुंह से हजार-हजार गालियां
लेकिन इस बार मरना तुम्हारा
डुबो गया है उदासी के समुद्र में छटपटाता।
बेवजह नहीं है यह उदासी
वह हौसला नहीं है चलने में अब
जो तब था
दौड़ में भागते हुए तुम्हारे गिराने के बाद
उठकर भाग पड़ने में,
नहीं है वह रौनक चेहरे पर
जो कौंधी थी
तुम्हारे प्रशासनिक नाखूनों की खरोंचों के बाद।
छलक आए खून को पोंछते हुए
जाने क्या हो गया था चेहरा कि
तुम देर तक नहीं मिला पाए थे आंखें।
संज्ञाहीन लग रहे हैं आज मेरे हाथ
जिन्हें मुद्दतों बर्फ में रखा तुमने
फिर भी इनकी गिरफ्त से
डरती थी तुम्हारी गरदन,
मैं मोमबत्ती की तरह
देने लगा था रोशनी
जब तमने लगा दी थी आग मेरे सिर में
तुम्हारे खड़े किये/अड़चनों के पहाड़ कदम-कदम पर
बन गए थे-
मेरा हौसला, मेरे रास्ते, मेरा लक्ष्य।
कृतज्ञता से झुक जाता है मेरा सिर आज
तुम्हारी ली अग्नि-परीक्षाओं के बाद
और पैदा करने के लिए
उनसे उबारने वाली जिदें/बेशुमार ताकत जूझने की...
लेकिन अब जब तुम नहीं हो
मेरे पैरों में बंध गया है मनों बोझ
फड़क नहीं उठते हैं हाथ
खड़ा हूं निरुद्देश्य अंधेरे चौराहों पर
सामने नहीं है कोई रास्ता, कोई मंजिल
तुम्हारी अंत्येष्टि के बाद
अब तुम नहीं हो
नहीं है खूंखार धमकियां/कुटिल चक्रव्यूह/
डरावनी आशंकाएं/घाते-प्रतिघाते
जिन्हें परास्त करते हुए जीना
बन गया था मेरा स्वभाव
मैं भूल गया हूं सहज होकर जीना
इसी भूले हुए रास्ते पर वापस जाते थक रहा हूं
इसीलिए बहुत उदास हूं
तुम्हारी अंत्येष्टि से लौटकर।