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तुम्हारे इश्क से अब तो उबर जाने की सोची है / रंजना वर्मा
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तुम्हारे इश्क़ से अब तो उबर जाने की सोची है
बहुत थे दूर खुद से आज घर जाने की सोची है
बिगड़ने के लिये कब साथ कोई ढूँढ़ना पड़ता
बहुत बिगड़े हैं अब हम ने सुधर जाने की सोची है
लहर गिनने से तो मोती नहीं मिलते किनारे पर
समन्दर में ही अब गहरे उतर जाने की सोची है
कली अब तक रही झुकती हवाओं के इशारों पर
चटक कर फूल बन कर यूँ बिखर जाने की सोची है
बहुत तूफ़ान आये है सताया आँधियाँ ने भी
मुसीबत झेल कर हम ने निखर जाने की सोची है
उठा कर आईना बरसों हुए सूरत नहीं देखी
निहारा झील में चेहरा सँवर जाने की सोची है
रहा कब फ़ासला है रोशनी औ दीप दोनों में
नदी के बीच ले नैया भँवर जाने की सोची है