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तुम्हारे गण / अज्ञेय
Kavita Kosh से
तुम्हारा घाम नया अंकुर हरियाता है
तुम्हारा जल पनपाता है
तुम्हारा मृग चौकड़ियाँ भरता आता है
चर जाता है।
तुम्हारा कवि जो देख रहा है मुग्ध
गाता है, गाता है!
हँसती रहने देना जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे, इन आँखों को
हँसती रहने देना।
हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले,
मन के आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने-अनजाने) सौ झूठ कहे
पर आँखों ने हार दुःख अवसान
मृत्यु का अन्धकार भी देखा तो
सच-सच देखा।
इस पार उन्हें जब आवे दिन-
ले जावे पर उस पार
उन्हें फिर भी आलोक-कथा
सच्ची कहने देना : अपलक
हँसती रहने देना!
जब आवे दिन
सितम्बर, 1975