तुम्हारे घर के सामने से / महेश सन्तोषी
तुम्हारी मृत्यु के बाद अब हम
तुम्हारे घर क सामने से नहीं निकल पाते,
चलते-चलते लगता है हमारे प्राण, यहीं क्यों नहीं निकल जाते?
इस फासले को अब न समय कम कर सकता है, न कोई प्रवाह,
इसके आगे अज्ञात अँधेर हैं,
अनदेखे क्षितिज ही हैं इसकी अनिवार्य नियति!
तुम्हारे अस्तित्व की आभा, महक, आभास
न आँखें भुला पातीं, न मन भुला पाता,
जाने को वही पुराना रास्ता जाता है, तुम्हारे घर तक
पर अब तुम तक कोई रास्ता नहीं जाता,
कहाँ ले जाए हम, यह प्राणों का प्रवाहित दर्द?
आँख में तुम्हारे नाम का स्थायी आँसू,
ऐसे ही थोड़े ही बनते, बिखरते हैं,
पराई आँख में, किसी के नाम के आँसू!
देखने को इस घर की दीवारें,
देहरी, द्वार सब दिखते हैं,
बस, तुम नहीं दिखते!
मौत जब छीन लेती है किसी का प्यार
न फिर प्यार वापिस मिलता,
न ज़िन्दगी वापिस मिलती!