तुम्हारे जन्म दिन के दान उत्सव में
विचित्र सुसज्जित है आज यह
प्रभात का उदय प्रांगण।
नवीन के खुले है दान सत्र असंख्य मानो
पुष्प-पुष्प पल्लव-पल्लव में।
प्रकृति परीक्षा कर देखती है
क्षण-क्षण में भण्डार अपना,
तुम्हें सम्मुख रख पाया यह सुयोग उसने।
दाता और ग्रहीता का संगम कराने को
नित्य ही आग्रह है विधाता का,
आज वह सार्थक हुआ,
विश्व कवि उसी के विस्मय में
देते तुम्हे आशीर्वाद
उनके कवित्व के साक्षी रूप में
दिये है तुमने दर्शन
वृष्टि-धौत श्रावण के
निर्मल आकाश में।
‘उदयन’
प्रभात: 13 जुलाई, 1941