तुम्हारे जाने के बाद / गौरव गुप्ता
तुम्हारे जाने के बाद
कविताएँ कम लिखीं
प्रार्थनाएँ ज़्यादा कीं मैंने
सबसे ज़्यादा शब्द वहीं थे
जहाँ मैंने कुछ नहीं कहा
मेरी कविताओं से ज़्यादा
मेरी प्रार्थनाओं ने दर्ज किया
तुम्हारे लिए प्रेम
बारिश के दिनों में
सबसे ज़्यादा पुकारा तुम्हें
और बहा दिया आँखों से
तुम्हारे पास न होने का दुःख
सबसे छिपकर
पार्क की बैंच ने
दर्ज किया है
मेरे अकेलेपन को
जो उग आया था
मेरी छाती पर
शहर की सड़कों ने
देखी है मेरी बेचैनी
मेरी चाल में
जो चिपक गई थी
मेरे मन पर
रिसती रही पैरों से
अपने अँधेरे कमरे की दीवारों को
मान लिया मैंने
यरुशलम की पवित्रतम दीवार
जिससे सटकर कभी
बैठा करती थीं तुम
मैंने बुदबुदाईं वहाँ
तुम्हारे लिए प्रार्थनाएँ
खिड़कियों को मान लिया कन्फ़ेशन बॉक्स
जहाँ कभी तुम ठोड़ी टिकाए देखती थीं
नई दुनिया
वहाँ बैठ घंटों गिनीं मैंने
अपनी ग़लतियाँ
बैठा रहा मैं गिरजाघरों में बुत-सा
जैसे कोई बैठा है दर्शक-दीर्घा में
वह नहीं जानता जादूगर की भाषा
बस जानता है 'जादू' का घट जाना
मज़ार पर चढ़ाए फूल और चादरें
फेंके बहती नदी में सिक्के
जैसे कोई असाध्य रोगी भटकता है
ढूँढ़ता है इलाज की सब तरकीबें
एलोपैथ से आयुर्वेद तक
गंगा की घूँट से
आब-ए-ज़मज़म तक
वैसे ही भटकता रहा
एक रोगी की तरह
पुकार की हर भाषा तक
जो पहुँचा सके मेरी आवाज़
तुम तक
बता सके इतना भर कि
तुम्हारे जाने के बाद
नहीं बदला है मेरा पता
और न ही मुझ तक लौटने के रास्ते।