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तुम्हारे बाद / शिवराम
Kavita Kosh से
जैसे झक्क दोपहरी में
डूब जाए सूरज
जैसे सूख जाए अचानक
कोई कल-कल बहती नदी
जैसे किसी पर्वत की छाती से
देखते-देखते अदृश्य हो जाए
कोई उछलता हुआ झरना
जैसे दमकते चांद को
निगल जाए आसमान
पीठ थपथपाता कोई स्नेहिल हाथ
आंख पोंछती खुरदरी अंगुलियां
आगे-आगे चलते दृढ़ कदम
अचानक लुप्त हो जाएं जैसे
कुछ वैसा ही लग रहा है कामरेड़
तुम्हारे बाद
सब कुछ उदास-उदास
बाहर भीतर, दूर-दूर, आस-पास