तुम्हारे साथ चलने का न सुख पाता तो क्या गाता / डी.एम.मिश्र
तुम्हारे साथ चलने का न सुख पाता तो क्या गाता
तुम्हारा ग़म जो मेरा ग़म न बन जाता तो क्या गाता।
वो देखो चॉद कितनी दूर है आकाश में फिर भी
ज़मीं पर नूर वो अपना न बिखराता तो क्या गाता।
समन्दर से निकल करके जो आँसू आँख में छलका
कलम का भी वही स्याही न बन जाता तो क्या गाता।
तुम्हारा रूप जो लोगों को दीवाना बना देता
ग़ज़ल का व्याकरण मेरी न बन जाता क्या गाता।
न तो सागर खनकते और न जश्ने मयकशी होता
अगर साकी न आकर जाम छलकाता तो क्या गाता।
किसी की मौत हो तो दूसरा बेमौत मर जाये
हमारा यूँ अगर होता नहीं नाता तो क्या गाता।
तू मेरे दिल में है फिर भी तुझे ही ढूँढता फिरता
हकीकत क्या है गर मैं यह समझ जाता तो क्या गाता।