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तुम्हें निमन्त्रण हैं सपनों में. / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'

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तुम्हें निमन्त्रण हैं सपनों में, चाहे आना या मत आना।

अपने सुख के कारण तुमको, बाध्य नहीं कर सकता हूँ मैं,
भावतृप्ति के लिए, तुम्हारे भाव नहीं हर सकता हूँ मैं,
छीन तुम्हारे हियमंदिर से, उद्गारो के तूफानों को,
अपने हिय में भावों के तूफान नहीं भर सकता हूँ मैं,

मेरे भाव तुम्हारे ही हैं, चाहे लेना या ठुकराना।
तुम्हें निमन्त्रण हैं सपनों में, चाहे आना या मत आना।

मेरे गीतो का उत्सव हैं, जिसमें तुम भी आमन्त्रित हो,
गीतो की हर कड़ी के, भावों से तुम पूर्ण विदित हो,
फिर इनके स्वरगुंजन में, क्यो नुपुर की तान नहीं हैं
जब इनके ह्दय पलटपर, प्रतिमा बन स्वयं निहित हो,

मैने तुमको गीत दिए है, चाहे गाना या मत गाना।
तुम्हें निमन्त्रण हैं सपनों में, चाहे आना या मत आना।

सपने भी कितने भोले हैं, बेदर्दी से प्रीत लगाई,
जिसने इनको तड़पाया हैं, उस पर सारी उमर गॅंवाई,
सुख दुख की परवाह न कर के, निज प्रियतम से प्यार किया हैं,
अपने प्रियतम को पाने हित अन्तर मन में आग, लगाई,

अन्तर मन की आग बुझाना, या फिर उसको और जलाना।
तुम्हें निमन्त्रण हैं सपनों में, चाहे आना या मत आना।

तुम न आए तो सपनो की महफ़िल सूनी रह जायेगी,
नयनों के गहरे सागर से, आँसू धारा बह जायेगी,
कौन सुनेगा इसका क्रंदन, कौन स्नेह से सहलाएगा
आशा मंन्दिर की दीवारे खण्डहर बन कर ढह जायेंगी,

उस मंन्दिर को निर्मित करना, या फिर उसको और मिटाना।
तुम्हें निमन्त्रण हैं सपनों में, चाहे आना या मत आना।