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तुम अपने जीवन की गाँठें खोलो, संगिनि, मैं भी खोलूँ / हरिवंशराय बच्चन

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तुम अपने जीवन की गाँठें खोलो, संगिनि, मैं भी खोलूँ।

धरती ने अपने अंतर की
गाँठें खोली तब वह फैली
हरित, भरित, रस-रंजित बनकर
थी जो मैली और कुचैली,
अंबर उर की गाँठें खोले
नित नीला, निर्मल, चमकीला,
तुम अपने जीवन की गाँठें खोलो, संगिनि, मैं भी खोलूँ।

शब्द नहीं मानव ने पाया
अपने मन की बात छिपाए,
औरों को धोखे में रखते--
रखते ख़ुद भी धोखा खाए,
फूल छिपाए भीतर-भीतर
काँटे हो जाया करते हैं
तुम अपने अंदर के स्वर से बोलो, संगिनि मैं भी बोलूँ।
तुम अपने जीवन की गाँठें खोलो, संगिनि, मैं भी खोलूँ।