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तुम कब जागोगे ? / सुभाष राय

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सुबह तुमने आँखें खोलीं
तो मैं तुम्हारे सिरहाने बैठा था
तुमने मेरी ओर देखा ही नहीं
नहाए, नाश्ता किया, दफ़्तर पहुँचे
बहुत व्यस्त रहे पूरे दिन
मैं तुम्हारी कुर्सी के पीछे खड़ा रहा

घर लौटकर बिस्तर पर लुढ़क गए
चाय पी और टी०वी० चला दिया
कुछ खोजने लगे, चैनलों पर इधर-उधर
नहीं जानता क्या चाहिए था तुम्हें
मैं बिल्कुल तुम्हारे नज़दीक था
तुम थोड़ा मुड़ते तो मुझे देख सकते थे

खाना खाया और नीन्द में गुम हो गए
इन्तज़ार करता रहा पूरी रात

चिन्तित हूँ कि तुम कभी जाग नहीं सके
ख़ुद से नहीं पूछा अपने होने का मतलब
खुशियाँ आईं, विचलित भी हुए कई बार
लेकिन मुझे आवाज़ नहीं दी कभी

मेरे पास वह सब कुछ है
जिसके लिए तुम भागते रहते हो
जब भी तुम मुझे याद करोगे, मिल जाऊँगा
साल, दस साल, सौ साल बाद
मृत्यु के बाद, अनगिनत जीवन के बाद
जब भी तुम्हें मेरे लिए एक पल मिलेगा
मैं तुम्हें गोद में उठा लूँगा

सुबह होने को है, मैं फिर खड़ा हूँ
तुम्हारे जागने के इन्तज़ार मे

(एक अँग्रेज़ी प्रार्थना से प्रेरित)