तुम कहाँ हो / सपना भट्ट
भीतर कहीं एक कोमल आश्वस्ति उमगती है
कि सुख लौट आएंगे।
उसी क्षण व्यग्रता सर उठाती है
कि आख़िर कब?
जो कहीं नहीं रमता वह मन है,
जो प्रेम के इस असाध्य रोग
से भी नहीं छूटती वह देह।
अतृप्त रह गयी इच्छाएँ
आत्मा के सहन में अस्थियों की तरह
यहाँ वहाँ बिखरी पड़ी हैं,
जिनका अन्तर्दन्द्व तलवों में नहीं
हृदय में शूल की तरह चुभता है।
अपनी देह में तुम्हारा स्पर्श
सात तालों में छिपा कर रखती हूँ।
मेरी कंचुकी के आखिरी बन्द तक आते आते
तुम्हे संकोच घेर लेता है।
हमारा संताप इतना एक-सा है
ज्यों कोई जुड़वां सहोदर।
जानते हो न
बहुत मीठी और नम चीजों को
अक्सर चीटियाँ लग जाती हैं,
मेरे मन को भी धीरे धीरे
खा रही हैं तुम्हारी चुप्पी अनवरत।
प्रेम करती हूँ सो भी
इस मिथ्या लोक लाज से कांपती हूँ।
जबकि जानती हूँ कि
लोग घृणा करते भी नहीं लजाते।
किसी को दे सको तो अभय देना
मुझ जैसे मूढमति के लिए
क्षमा से अधिक उदार कोई उपहार नहीं।
पहले ही कितनी असम्भव यंत्रणाओं से
घिरा है यह जीवन।
सौ तरह की रिक्तताओं में
अन्यंत्र एक स्वर उभरता है।
देखती हूँ इधर स्वप्न में कुमार गन्धर्व गा रहे हैं
उड़ जाएगा हंस अकेला।
मैं एकाएक अपने कानों में
तुम्हारी पुकार पहनकर
हर ऋतु से नङ्गे पांव तुम्हारा पता पूछती हूँ।
कैसी बैरन घड़ी है
किसी दिशा से कोई उत्तर नहीं आता।
तुम कहाँ हो?
मुझे तुम्हारे पास आना है।