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तुम कहो तो कहूँ / जावेद अनवर

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हर्फ़ के तार में जितने आँसू पिरोए गए
दर्द उन से फुज़ूँ था
सुनो, तो कहूँ
तुम कहो तो कहूँ ज़र्फ़ की दास्ताँ

खेतियों को गिला बादलों से नहीं सूरजों से भी था
बाज़ूओं से भी था, हल पकड़ने से पहले ही जो थक गए
किश्त-ए-ज़रख़ेज़ पर आब-ए-नमकीन जम सा गया
रक़्स थम सा गया
एड़ियाँ घूमते-घूमते रुक गईं
अशक रुख़सार की घाटियों से गिरा -- मुँजमिद हो गया
रँग ख़ुशबू बना तो हवा चल पड़ी
ख़ाब नाता बना तो खुली खिड़कियों में सलाख़ें उगीं
हाथ ज़ख्मीं हुए

किस के कशकोल से कितने सिक्के गिरे
हिजर कैसा परिन्दे की आँखों में था
घाव कैसे पहाड़ों के सीने पे थे
आईना गुँग था
फ़र्श पर अक्स धम्म से गिरा
किर्चियाँ हो गया
तुम कहो तो गिनूँ
तुम कहो तो चुनूँ
तुम कहो तो सुनूँ इन खिले फूल की धड़कनें

गुमशदा तितलियों की सदा
ज़र्द टहनी के होंटों पे रखी हुई बददुआ
आसमानों की दहलीज़ पर फेंक दूँ
तुम कहो तो दिखाऊँ तुम्हें
इक तमाशा कि जो मेरी मुट्ठी में है
एक गर्दन कि जो ग़म के फन्दे में है
सांस चलती भी है और चलती नहीं
जाँ निकलती नहीं !