भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम कह दो तो / साँझ सुरमयी / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम कह दो तो आग लगा दें विस्मृति की सूनी घाटी में
या प्राणों की प्यास बुझा दें जीवन पथ पर चलते चलते॥

तुम क्या जानो जीवन की किन राहों से हम कैसे गुजरे
कैसे समझोगे शूलों की शैया पर हम कैसे सोये ,
झोंपड़ियों में प्यार जगा कर मिट्टी से ममता बाँधी है
तुम क्या जानोगे कैसे हम आहों के सपनों में खोये।

सजल स्नेह की धार बहा दें फिर बंजर सूखी माटी में
या धरती की आस जगा दें हम सन्ध्या बन ढलते ढलते॥

बन कर कलिका भ्रमर वृन्द की ममता सौरभ कण से बाँधें
चम्पा की डाली पर झूलें या कलियों को दूर हटा के।
बिजली की लहरें बन हम छिप जायें सावन की बदली में
खंजर बन कर या कि चीर दें टुकड़े कर दें आज घटा के।

आज चुभन की व्यथा बाँट दें शूल बनें कुसुमित छाती पर
परवानों को आज जला दें दीपशिखा बन जलते जलते॥

कोई करने लगा बसेरा पंथी गलियों चौराहे पर
कितने ही पदचिह्न ठहर जाते हैं सूनी सी रहो पर।
चला जा रहा एक काफ़िला रेगिस्तानों की छाती पर
सूखे पपड़ाये होठों पर प्यास जम गयी है आहों पर।

तुम कह दो तो राह दिखा दें भूले भटके बंजारों को
भोर किरन का हो आलिंगन उठकर आँखें मलते मलते॥