तुम कैसे सीता घोर विपिन मँह जैहों।
गर्जत व्याघ्र सिंह बहुतेरो पर्वत देखि डेरैहों।
उहाँ सयानी लागत पानी घरहीं विपत गवैहों।
नदी भयंकर देखि डेरैहों केवट कहीं न पैंहो।
काँट कूश गरीहें चरणों में धूप लगी कुम्हीलैहों।
चौहट हाट बाजार नहीं है कंद मूल फल खैहों।
कभी कभी ओ भी ना मिलीहें भूखे ही रहि जैहों।
राकस सब माया करते हैं देखि देखि घबरैहों।
द्विज महेन्द्र कहवाँ ले बरजों कुल के नाम नसैहों।