तुम क्या गए कि ज़िन्दगी में रंग ही नहीं
तन्हा मैं यूँ हुई कि कोई संग ही नहीं
मक़्सद है अब न ज़िन्दगी में और न तलाश
गोया कि जैसे जीने का हो ढंग ही नहीं
खामोश देखती है नज़र ढूँढती है क्या
जीने की जिनमे वज्ह वह प्रसंग ही नहीं
कुछ इस तरह तुम्हारे बिना रह गयी हूँ मैं
जैसे कि हो सारंगी प सारंग ही नहीं
कहने को तो है जिन्दगी, जी रही हूँ मैं
पर सच तो ये है जीने की उमंग ही नहीं