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तुम क्यूं हो गये विदा / निशा माथुर

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काश! तेरे नयनों से मेरे, नयनों की बात कर पाती
झुकी हुई बोझिल पलकों पर कुछ ख्वाब सुला पाती,
क्यूं हंसों के जोङे को देख, मेरे प्राण अकुला जाते
आज मेरे देह द्वार तुम दो पल अतीत सजा जाते।
निष्ठुर! तुम क्यूं हो गये विदा, ये तो बतला जाते?

दिल की धङकन देख, तुम्हैं, यूं उन्मादित होती
ये सूनापन ना होता सोचो, कितनी मादकता होती।
पिया विरह ये तङप विरहनी, होंठ कभी मुस्काते,
कैसे शूल चुभे चितवन में, व्याकुल नयना बतलाते।
निष्ठुर! तुम क्यूं हो गये विदा, ये तो बतला जाते?

सांसों में गुम होती सांसे, भीगी-भीगी प्रीत निभाती
सौभाग्य की पहचान बताती, माथे सिन्दूर सजाती,
शतदल-सी गोरी कलाई, तुम हरी चूङीयाँ लाते,
कान्त, अभिमंत्रित फेरो के, कितने ही वचन निभाते।
निष्ठुर! तुम क्यूं हो गये विदा, ये तो बतला जाते?

उर में छिङती नयी रागिनी, अलसायी संध्या गाती,
खिलती काले गेसू के जादू, महुवा मनवा भटकाती।
मैं अमावस-सी घिर-घिर जाती, तो तुम मेघ बरसाते,
अंध गर्त से जीवन को भी, रतरानी-सा महका जाते
निष्ठुर! तुम क्यूं हो गये विदा, ये तो बतला जाते?

ले जाते निज याद तुम्हारी, हदय मेरा मुझको दे जाते
मेरी पीर भरी व्यथा लेकर तुम, मेरे त्यौहार दे जाते।
मौन बन गया प्रश्नचिन्ह सा, क्यूं मेरी पूजा ठुकराते
इसी जनम में छोङ गये, क्या सातों जनम निभाते।
निष्ठुर! तुम क्यूं हो गये विदा, ये तो बतला जाते?