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तुम खड़ी हो हैरान, गुमसुम / आलोक श्रीवास्तव-२

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कायनात अपने रंग बदल रही है
और नाजुक हो गयी है पंखुरियाँ

बहार का यह और ही ढंग है

दरख़्तों पर चाँद
समूचा उगा
झील के सोये पानी में डूबा-डूबा-सा
किसी के इंतजार में है

उदासी के एक बहुत गहरे अतल से
एकांत के अपने बियाबानों से
तुम बाहर आ रही हो --
आहिस्ता, बहुत ख़ामोश

पर
हवा तो गूंज उठी है फूलों की हंसी से
पत्ते में एक खड़-खड़
और के बांसुरी
जंगल में दूर ...
लहर-लहर कर अपने स्वर भेंज रही है

और तुम खामोश हो
पर बहुत आहिस्ता से
जादू-वनों से दबे पाँव चलती
एक हँसी तुम्हारी आंखों में उतर रही है
तुम्हें पता भी नहीं
तुममें
अबकी वसंत
कितनी पायलों की छनक और
फूलॊं का रंग छोड़ गया है

जादू-वन में खोई राजकुमारी-सी
तुम खड़ी हो --
हैरान
कुछ गुमसुम
और
दूर
झिलमिलाते सूरज की रोशनी में
बेतहाशा
एक झरना दौड़ रहा है ...