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तुम खेल सरल मन के सुख से, अब छोड़ मुझे यों दीन-हीन (द्वितीय सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल
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तुम खेल सरल मन के सुख से, अब छोड़ मुझे यों दीन-हीन
मलयानिल-से जा रहे, निठुर! कलिका की सौरभ-राशि छीन!
पढ़ विजन-कुमारी के उर की गोपन भाषा सहृदय स्वर से
अब व्यंग्य हँसी लिखते हो तुम पंखुरियों पर निर्दय कर से
उपकारों का प्रतिकार यही! आभार यही आभारी का!
तुम खेल रहे अंगार-सदृश ले हृदय हाथ में नारी का
चंचल लावण्य-प्रभा जिसकी पाती हो प्रात न स्नेह-स्फूर्ति
निष्प्रभ थी दीपशिखा-सी ही नारी निशि की श्रृंगार-मूर्ति
अंचल फैलाये सरिता की तट लाँघ सिसकती लहरी-सी
उड़ायाद्रि-क्षितिज पर ज्यों कोई तारिका विनत-मुख ठहरी-सी
करुणा, दुख, ईर्ष्या, रोष-विभा परिवर्तित जिसके क्षण-क्षण की
भावों के अभिनय में चित्रित नैराश्य-व्यथा-सी जीवन की