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तुम गीतों के रूप सँवारो / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

तुम गीतों के रूप सँवारो
मैं तो उनमें प्राण भरूँगा
करूणा की छाया में मानव मन
आकुल-आकुल फिरता है
सुख के क्षण आने के पहले
दुख का बादल आ घिरता है
आज गीत के बदले उसके
स्वर में क्रन्दन की परछांई
करवट ले सकती न इसीसे
लेती रह रह कर अँगराई
अपने अन्तर की ज्वाला से
उसका भी अनुमान करूँगा
तुम गीतों के रूप सँवारो
मैं तो उनमें प्राण भरूँगा
भूल गया मानव मधु-लीला
उसे गरल उपहार मिला है
आशा का संचार कहाँ जब
जीवन का आधार हिला है
युग युग से संघर्ष निरत हो
देख रहा था मीठा सपना
स्वर-सन्धान भला क्या जाने
जिसने सीखा केवल तपना
तुम अन्वेषण करो सुधा का
लेकिन मैं विषपान करूँगा
तुम गीतों के रूप सँवारो
मैं तो उनमें प्राण भरूँगा
नीलकण्ठ के अट्टहास में
नव उल्लास उमड़ आयेगा
पल भर में देखेगी दुनिया
यह इतिहास बदल जायेगा
युग के अणु-अणु मे नवजीवन
कुछ क्षण में भरनेवाला है
जन-बल का नव सूर्य तिमिर का
शेष अंश हरनेवाला है
तुम मदमत्तों का जय बोलो
मैं उनका अभिमान हरूँगा
तुम गीतों के रूप सँवारों
मैं तो उनमें प्राण भरूँगा
याद रहे युग-युग पीड़ित
जिस दिन यह जनता ऊबेगी
तो नृशसता की ज्वाला जा
करूणा सागर में डूबेगी
दिग् दिगन्त में गूँज उठेगी
मधु मिश्रित मानव की भाषा
हृदय-हृदय में उछल पड़ेगी
युग-युग की सोई अभिलाषा
तुम संकट से प्राण बचाओ
मैं तो जीवन दान करूँगा
तुम गीतों के रूप सँवारो
मैं तो उनमें प्राण भरूँगा