तुम जानो या मैं जानूँ / शंभुनाथ सिंह

जानी अनजानी, तुम जानो या मैं जानूँ।

यह रात अधूरेपन की, बिखरे ख्वाबों की
सुनसान खंडहरों की, टूटी मेहराबों की
खंडित चंदा की, रौंदे हुए गुलाबों की

जो होनी अनहोनी हो कर इस राह गयी
वह बात पुरानी-तुम जानो या मैं जानूँ।

यह रात चांदनी की, धुंधली सीमाओं की
आकाश बाँधने वाली खुली भुजाओं की
दीवारों पर मिलती लम्बी छायाओं की

निज पदचिन्हों के दिए जलाने वालों की
ये अमिट निशानी, तुम जानो या मैं जानूँ।

यह एक नाम की रात, हजारों नामों की
अनकही विदाओं की, अनबोल प्रणामों की
अनगिनित विहंसते प्रान्तों, रोती शामों की

अफरों के भीतर ही बनने मिटने वाली
यह कथा कहानी, तुम जानो या मैं जानूँ।

यह रात हाथ में हाथ भरे अरमानों की
वीरान जंगलों की, निर्झर चट्टानों की
घाटी में टकराते खामोश तरानों की

त्यौहार सरीखी हंसी, अजाने लोकों की
यह बे-पहचानी, तुम जानो या मैं जानूँ।

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