भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम तो नष्ट हो गए / संजय तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सृष्टि से पहले जिसने
सृष्टि के दर्शन गढ़ा
क्या तुमने कभी
उसको भी पढ़ा?
श्रुति
स्मृति
इतिहास
बिना जाने कैसे पाते उल्लास
तुमने जाना भी नहीं
कैसे
जगत को
आलोकित करता है
आदित्य
कभी नहीं देखा तूने
सृजन का साहित्य
यह जगत है गौतम
यहाँ हर हाल में जीना पड़ता है
अपमान भी पीना पड़ता है
दर्द और कराह
श्वेत हो या स्याह
सहना ही पड़ता है
परिस्थितियां जैसी भी हो
रहना ही पड़ता है
आखिर तुम भी तो रहे ही
अपने जीते जी सबकुछ सहे ही
जब दहकने लगे थे तुम्हारे बिहार
तरह तरह के अत्याचार
वैमनस्य और लालच में
लड़ने लगे थे तुम्हारे शिष्य
कितने विवश थे
तुम देख कर वे दृश्य
तुम तो जानते ही थे
कि
गया में पीपल के नीचे
जो भी तुमने हासिल किया
वह कदापि नहीं था ज्ञान
रूप बदल कर
तुम्हारे भीतर समां गया था
एक विचित्र सा अभिमान
और
तुमने उसी को हर दिशा में दौड़ाया
जो ज्ञान नहीं था
ज्ञान के नाम से उसे ही बढ़ाया
मूढ़ता ने
ज्ञान के चिरंतन प्रवाह को रोक दिया
तुम्हारे चिंतन ने
सामाजिक ताने बाने को
 संघर्ष में झोंक दिया
तुम देख सको तो देखो
न सृष्टि मिटी न उसका दर्शन
न मृत्यु डरी
न लालच मरी
न तृष्णा मिटी
न आशा घटी
न करुणा को कभी
 हुआ कोई कष्ट
न जीवन का सौंदर्य
हुआ कभी नष्ट
लेकिन
तुम तो नष्ट हो गए
तुम्हारे विहार तो भ्रष्ट हो गए