तुम नंदमहर के लाल मोहन जाने दे / रसिक दास
तुम नंदमहर के लाल मोहन जाने दे।
रानी जसुमति प्रान आधार॥
श्री गोवर्धन के शिखर तें, मोहन दीनी टेर।
अंतरंग सों कहतें सब ग्वालिन राखों घेर॥॥१॥
ग्वालिन रोकी ना रहे ग्वाल रहे पचिहार।
अहो गिरधारी दोरिया सो कह्यो न मानत ग्वार॥२॥
चली जात गोरस मदमाती मानो सुनत नही कान।
दोरि आये मन भामते सों रोकी अंचल तान॥३॥
एक भुजा कंकन गहे, एक भुजा गहि चीर।
दान लेन ठाडे भये, गहवर कुंज कुटीर॥४॥
बहुत दिना तुम बची गई हो दान हमारो मार।
आजहों लेहों आपनो दिन दिन को दान संभार॥५॥
र्स निधान नव नागरी निरख वचन मृदु बोल।
क्यों मुरी ठाडी होत हे, घूंघट पट मुख खोल॥६॥
हरख हिये करि करखिकें मुख तें नील निचोल।
पूरन प्रगट्यो देखिये मानो चंद घटा की ओल॥७॥
ललित वचन सुमुदित भये नेति नेति यह बेन।
उर आनंद अतिहि बढ्यो सो सुफल भये मिलि नेने॥८॥
यह मारग हम नित गई कबहू सुन्यो नही कान।
आज नई यह होत हे सो मांगत गोरस दान॥९॥
तुम नवीन नवनागरि नूतन भूषण अंग।
नयो दान हम मांगनो सो नयो बन्यो यह रंग॥१०॥
चंचल नयन निहारिये अति चंचल मृदु बेन।
कर नही चंचल कीजिये तजि अंचल चंचल नेन॥११।
सुंदरता सब अंग की बसनन राखी गोय।
निरख निरख छबि लाडिली मेरो मन आकर्षित होय॥१२॥
ले लकुटी ठाडे रहे जानि सांकरि खोर।
मुसकि ठगोरि लायके सकत लई रति जोर॥१३॥
नेंक दूरि ठाडे रहोकछू ओर सकुचाय।
कहा कियो मन भावते मेरे अंचल पीक लगाय॥१४॥
कहा भयो अंचल लगी पीक हमारी जाय।
याके बदले ग्वालिनी मेरे नयनन पीक लगाय॥१५॥
सुधे बचनन मांगिये लालन गोरस दान।
मोहन भेद जनाई के सो कहेत आन की आन॥१६॥
जैसे हम कछु कहत हे एसी तुम कहि लेहु।
मन माने सो कीजिये पर दान हमारो देहु॥ १७॥
कहा भरे हम जात हे दान जो मांगत लाल।
भई अवार घर जाने दे सो छांडो अटपटी चाल॥१८॥
भरे जातहो श्री फल कंचन कमल वसन सों ढांक।
दान जो लागत ताहि को तुम देकर जाहु नोंसाक॥१९॥
इतनी विनती मानिये मांगत ओलि ओड।
गोरस को रस चाखिये लालन अंचल छोड॥ नागरी दान दे॥२०॥
संग की सखी सब फिर गई सुनि हें कीरति माय।
प्रीति हिय में राखिये सो प्रगट किये रस जाय॥२१॥
काल्ह बहोरि हम आय हें गोरस ले सब ग्वारि।
नीकि भांति चखाई हें मेरे जीवन हों बलिहारी॥२२॥
सुनि राधे नवनागरी हम न करे विश्वास।
करको अमृत छांडि के को करे काल्हिकी आस॥२३॥
तेरो गोरस चाखवे मेरो मन ललचाय।
पूरन शशिकर पाय के चकोर धीर न धराय॥२४॥
मोहन कंचन कलसिका किली सीस उतार।
श्रमकन वदन निहारिके सो ग्वालिन अति सुकुमार॥२५॥
नव विंजन गहि लालजु श्री कर देत ढुराय।
श्रमित भई चलो कुंज में नंक पलोटु पाय॥२६॥
जानत हो यह कोन हे एसी ढीठ्यो देत।
श्री वृषभानकुमारि हे अरि तोहि बीच को लेत॥ २७॥
गोरे श्री नंदराय जु गोरि जसुमति माय।
तुम यांहिते सामरे एसे लच्छित पाय ॥२८॥
मन मेरो तारन बसे ओर अंजन की रेख।
चोखी प्रीत हिये बसे यातो सांवल भेख॥२९॥
आप चाल सों चालिये यहे बडेन की रीति।
एसी कबहुं न कीजिए हँसे लोग विपरीति॥३०॥
ठाले ठुले फिरत हो और कछु नही काम।
बाट घाट रोकत फिरो आन न मानत श्याम ॥३१॥
यही हमारो राज है ब्रजमंदल सब ठौर।
तुम हमारी कुमुदिनी कम कमल बदन के भोंर॥ ३२॥
एसे में कोउ आई हे देंखे अद्भुत रीति।
आज सबे नंदलाल जु प्रगट होयगी प्रीति॥३३॥
व्रज वृंदावन गिरी नदी पशु पंछी सब संग।
इनसो कहा दुराइये प्यारे राधा मेरो अंग॥३४॥
अंस भुजा धरि ले चले प्यारी चरन निहोर।
निरखत लीना रसिकजु जहां दान के ठोर॥३५॥