तुम नहीं जानोगी कभी / आलोक श्रीवास्तव-२
तुम नहीं जानोगी कभी
एक मामूली आदमी कैसे करता है प्यार
चिंता, दुख और बेबसी की
अथाह यमुना को पार कर
किस तरह बचा लाता है
जीवन और धरती के लिये
बेइंतहा कशिश
चट्टानों पर कुदाली की चोट करते
बंजर को हमवार बनाते
जंगलों में लकड़ियां बीनते
इस आदमी के पसीने में
एक अमृत है
जीवन भर नहीं जान पाओगी
तुम उसका स्वाद
बाढ़ के पानी से
बहा है कितनी बार उसका घर
टूटी शहतीरों के बीच उदास खड़े
इस आदमी ने
हर बार नये सिरे से बनाया है बसेरा
उसके साथ हमेशा रही है
भादों की डरावनी अंधेरी रातों में
आले पर टिमटिमाती
दिये की लौ
समय के विशाल फाटकों की सांकल
सुनी है अक्सर उसने
नींद के तीसरे पहर में !
उसकी भी नींद में एक सपना है
और उस सपने की रेशम जैसी
एक कोमल भाषा भी है
जिसे कभी कभी ज़मीन सुनती है
और कभी कभी
फूल, पत्ती और टहनियां भी
तुम नहीं जानोगी कभी
अर्थ उस भाषा का !
जीवन इसी तरह तय करता जायेगा
समय की विशाल दूरियां
तुम भी जी चुकोगी एक ज़िंदगी
इच्छायें पूरी होने और न होने के
दुख-सुख से भरी
एक मामूली आदमी का प्यार नेमत होता है
धरती पर लहलहाती फसलों जैसा
शायद जानोगी तुम भी
मगर बहुत दिनों बाद !