Last modified on 6 मई 2019, at 00:30

तुम नहीं हो / कविता कानन / रंजना वर्मा

फिर वही
सुबह का समा
वही नज़ारा
वही बहती हुई
शीतल हवा
पत्तों को उड़ाती
खुशबू से भर देती
नासापुटों को
और वही बेंच
जिस पर बैठ कर
किया करते थे
हम घण्टों बातें
घर के सारे मसले
यहीं हल होते
भविष्य के सपने
अतीत की यादें
यहीं साझा किये जाते
सब कुछ है
वैसा ही
मधुर और दर्शनीय
किन्तु कितना अलग
मात्र इसलिये
कि यहाँ
अब
तुम नहीं हो।