भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम बंदी हो अहंकार के / मंजुला सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम बंदी हो अहंकार के तुम ईश्वर कैसे पाओगे ?
तुमने कितनी कलियाँ नोची कितने फूल मसल कर रोंदे .
तुम भंवरे से भटक रहे हो तुम खुश्बू कैसे पाओगे ?
दाने प्रलोभनों के फेंके मधुर शब्द के जाल बिछाए
तन के आकर्षण में उलझे तुम मन को कैसे पाओगे ?
मन का पंछी ढूंढा करता सत्यनिष्ठ विश्वास भरा मन
तुम शैवाल नदी तट के हो एक लहर में बह जाओगे .
रास रचाने को तो तत्पर पर क्या प्रीती निभा पाओगे ?
भोग- स्वार्थ के वशीभूत हो क्या खा योगी बन पाओगे ?

लेखन काल: 5-4-09