भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम बदले / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
तुम बदले, सम्बोधन बदले
लेकिन मन की बात वही है ।
जानें क्यों मौसम के पीछे
दिन बदले, पर रात वही है ।
यह कैसा अभिशाप -- चाँद तक
सागर का मनुहार न पहुँचे
नदी-तीर एकाकी चकवे का
क्रन्दन उस पार न पहुँचे ।
तन की तृषा झुलसकर सोई
मन में झंझावात वही है।
तुम्हें नहीं मालूम कि कैसे
भर जाता नस-नस में पारा
उड़ते हुए मेघ की छाया-सा
पलभर का मिलन तुम्हारा ।
तृप्ति नहीं मरुथल को, यद्यपि
प्यास वही, बरसात वही है ।
जितना पुण्य किया था, पाया
साथ तुम्हारा उतने दिन का
तुम बिछड़े थे जहाँ, वहीं से
पंथ मुड़ गया चंदन वन का ।
सब कुछ बदले, पर अपने संग
यादों की बारात वही है ।