भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम बिनु दीखत और न ठौर / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
राग चन्द्रनउ, तीन ताल 11.7.1974
तुम बिनु दीखत और न ठौर।
मेरे जीवन-धन मनमोहन! तुम सरन्य-सिरमौर॥
जासों काज सरत अपुनो तासों सब करहिं निहोर।
विना हेतु जो कृपा करै ऐसो को तुम बिनु और॥1॥
ग्यानी गुनी गनी को अग-जग, तुम हो गई बहोर<ref>बिगड़ी को बनाने वाले</ref>।
जाहि कहूँ कोउ पूछत नाहीं ताके तुम निज ठौर॥2॥
‘पतित-उधारन’ नाम तिहारो, विरद विदित सब ओर।
हौं हूँ एक पतित द्वारे पै आयो तजि सब पौरि॥3॥
कैसा हूँ, का तुमहिं बताऊँ, जानहुँ तुम सब मोरि।
पै जैसी हूँ सदा तिहारो, यासों आयो दौरि॥4॥
अपनो ही करि अपनावहुगे-यही एक बल मोर।
या ही बलसों चरन-सरन लै तकहुँ कृपा की कोर॥5॥
शब्दार्थ
<references/>