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तुम बिन मैं-गंधहीन / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
तुम बिन मैं गंधहीन चन्दन-वन
शेष उमर व्यालिनी-सी काढ़े फन।
कितने दिन बीते, संगीत बिना
कितना सन्नाटा है, गीत बिना
जीवन श्मशान-एक मीत बिना
काँटा-सा चुभता है अपना मन।
पूछते रहे रह-रह कर मुझसे पिक
बाँचते वीराने में कैसे ऋक्
ऐसे, इस जीवन को धिक्-धिक्-धिक्
साँसों से कर बैठे जो अनबन।
जीवन, क्या जीवन न साथी हो
साँझ हो न जिसमें सँझवाती हो
प्रेम न प्रतीक्षा, न पाती हो
मीत बिना सारे सुर झन-झन-झन।