Last modified on 18 फ़रवरी 2017, at 08:43

तुम भरमाए से लगते हो / दिनेश गौतम

मेरी उँगली नुची हुई़, पर तार छेड़ता हूँ वीणा के,
तुमने बस पीड़ा को देखा औ‘ बौराए से लगते हो।

पीड़ाओं के हर अरण्य में मैं फिरता हूँ निपट अकेला,
दुख की परिभाषा तक पहुँचे, तुम घबराए से लगते हो।

जन्म-जन्म से पदाक्रांत मैं, मैंने उठना अभी न छोड़ा,
ठोकर एक लगी जो तुमको बस गिर आए से लगते हो।

जीवन भर मैं रहा बाँटता, उजियारा तम का पी-पीकर,
एक अँधेरी निशा मिली तो, तुम सँवलाए से लगते हो।

प्रखर भानु की अग्नि-रश्मियाँ, मैंने झेलीं खुली देह पर,
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो।

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर , कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में तुम भरमाए से लगते हो।