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तुम भी बुला लेना मुझे / अपर्णा भटनागर
Kavita Kosh से
तुम भी बुला लेना मुझे
बस यूँ ही
हॉस्टल के सबसे पीछे वाले कमरे की वह चोर खिड़की
जहाँ अचानक आती थी मैट्रन
और पकड़ी जाती थी मैं बार-बार
हर बार खड़े रहते थे बाहर तुम
बहुत ज्यादा उग आती थी घास
कुछ ज्यादा गिरती थी ओस
जहाँ बादल का टुकड़ा रुका रहता था घंटों
बेतरतीब से बरसता था पानी
सांकल पर चढ़ा होता था इन्द्रधनुष फाल्गुनी
जहाँ नदी बह जाती थी मेरे पैरों से
और तुम पुल पर औचक थमे रहते थे
इन सबके बीच
आज चाहूँ, तुम बुला लो मुझे
निस्तब्ध क्षणों पर टिकी
हमारी पुरानी पहचान को
जो घर की खिड़की पर बैठी गौरैया को
आने देगी भीतर
और बहुत लड़ाइयों के बाद भी
रोशनदान पर रख देगी
तिनके नए
रंग भी तो तिनकों जैसे होते हैं
बुनते रहते हैं नीड़ प्रेम के