तुम मेरे हो जाओगे / शर्मिष्ठा पाण्डेय
रूप-काव्य में ढली पंक्तियाँ,मंत्रमुग्ध हो जाओगे
शब्द-अर्थ की परिभाषा में खुद को ही तुम पाओगे
सीमाओं के तोड़ के बंधन,असीमित हो जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे
हिय के बंधन नेह के नाते,भूल के कैसे जाओगे
रक्त समान शिराओं में तुम खुद को बहता पाओगे
उठते-गिरते उच्छ्वास की लय संग रमते जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे
सीमित मन इच्छा असंख्य में मणि-मुक्ता बन जाओगे
ह्रदय-अंगूठी में जड़ कर तुम,खुद की ही छवि पाओगे
लगा मैं लूंगी सीने से जब,मोम से पिघले जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे
शपा की माटी काया में घुल-मिल कर जल बन जाओगे
गीली माटी की मूरत में खुद को प्राण सा पाओगे
जो मैं छूट गयी तो केवल निराकार रह जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे
लाल रंग में घोलूं तुमको,अधरों में बस जाओगे
नयन-कमान में अंजन बनकर तीर सा खुद को पाओगे
सजा,वक्ष पर हार बना लूँ,रत्नजटित हो जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे
मन की नदिया के उफान में ज्वार से बढ़ते जाओगे
उमर की रीति गागर में खुद को नवयौवन पाओगे
सृष्टि रुकेगी,वक्त थमेगा और तुम बीते जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे